प्रगतिवादी बन रहा है मुस्लिम समाज
डॉ. महेश परिमल
मुस्लिम वर्ग से जुड़ी तीन घटनाएँ मेरी आँखों के सामने से गुज़रीं। तीनों ही घटनाएँ उस दकियानूसी और कट्टर समझे जाने वाले समाज की प्रगतिशीलता की ओर इशारा करती हैं। यह सच है कि इस समाज को आज कई देशों में अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता। सच यह है कि मात्र कुछ लोगों के कारण पूरा समाज ही बदनाम हो रहा है। इनमें में एक नहीं अनेक लोग हैं, जिन्हें भारतीय प्रजातंत्र पर पूरा विश्वास है। वे यहाँ रहकर यहीं के कानून को मानते हैं। यहाँ की परंपराओं ओर रीति-रिवाजों में घुलमिल गए हैं। कई जगहों पर तो इन्हें केवल नाम जानने के बाद ही पहचान होती है कि ये मुस्लिम हैं। बाकी रहन-सहन, खान-पान और संस्कृति को पूरी तरह से अपने में ढाल लेने वाले ये लोग कितने प्रगतिशील हे, यह जानने की जरूरत है।
पहली घटना: हैदराबाद की यह घटना है। एक युवत कहीं जा रही थी। उसके पीछे एक मनचला लग गया। वह फिकरे कसता, मजाक उड़ाता उसे लगातार छेड़ रहा था। एक सहज शर्म हया के बीच वह युवती भी उसे अनदेखा कर रही थी। यह उसकी एक की समस्या नहीं थी। आए दिनों उस रास्ते पर मनचले उन्हें अक्सर छेड़ते ही रहते। युवती आगे बढ़ती जा रही थी। युवक का हौसला बढ़ रहा था। बात काफी आगे पहुँच गई, युवती की खामोशी देखकर युवक ने उसका हाथ पकड़ लिया। बस यही हो गई गलती। उस युवती ने उस युवक को पकड़ा और इतने घूंसे मारे की, वह अधमरा हो गया। उसकी हालत ही खराब हो गई। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि छेड़छाड़ का यह सिला मिलेगा। वह कराह रहा था। युवती खामोश थी। जब वहाँ से गुजरने वाले लोगों ने घायल युवक को देखा और पास खड़ी युवती को देखा, तो दंग रह गए। वह युवती उस जिले की मुक्केबाज चैम्पियन थी। संयोग से उक्त युवती मुस्लिम थी।
दूसरी घटना: हाल ही में एक पुस्तक के लोकार्पण अवसर पर छ: सगी मुस्लिम बहनों ने वंदेमातरम्, सरफरोशी की तमन्ना जैसे राष्ट्रभक्ति गीतों का शमां बाँध दिया। कानपुर की इन छ: सगी मुस्लिम बहनों ने वन्देमातरम् एवं तमाम राष्ट्रभक्ति गीतों द्वारा क्रान्ति की इस ज्वाला को सदैव प्रज्जवलित किये रहने की शपथ ली है। राष्ट्रीय एकता, अखण्डता, बन्धुत्व एवं सामाजिक-साम्प्रदायिक सद्भाव से ओत-प्रोत ये लड़कियाँ तमाम कार्यक्रमों में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराती हैं। वह 1857 की 150 वीं वर्षगांठ पर नानाराव पार्क में शहीदों की याद में दीप प्रज्जवलित कर वंदेमातरम् का उउ्घोष हो, गणेश शंकर विद्यार्थी व अब्दुल हमीद खान की जयंती हो, वीरांगना लक्ष्मीबाई का बलिदान दिवस हो, माधवराव सिंधिया मेमोरियल अवार्ड समारोह हो या राष्ट्रीय एकता से जुड़ा अन्य कोई अनुष्ठान हो,ये बहनें वहाँ मुक्त मन से गीत गाती हैं और देशभक्ति की अलख जगाती हैं। इनके नाम नाज मदनी, मुमताज अनवरी, फिरोज अनवरी, अफरोज अनवरी, मैहरोज अनवरी व शैहरोज अनवरी हैं। इनमें से तीन बहनें-नाज मदनी, मुमताज अनवरी व फिरोज अनवरी वकालत पेशे से जुड़ी हैं। एडवोकेट पिता गजनफरी अली सैफी की ये बेटियाँ अपने इस कार्य को खुदा की इबादत के रूप में ही देखती हैं। पहली बार इन्होंने 17 सितम्बर 2006 को कानपुर बार एसोसिएशन द्वारा आयोजित हिन्दी सप्ताह समारोह में वंदेमातरम का उद्घोष किया। उसके बाद इन बहनों ने 24 दिसम्बर 2006 को मानस संगम के समारोह में पं0 बद्री नारायण तिवारी की प्रेरणा से भव्य रूप में वंदेमातरम गायन प्रस्तुत कर लोगों का ध्यान आकर्षित किया। तिरंगे कपड़ों में लिपटी ये बहनें जब ओज के साथ एक स्वर में राष्ट्रभक्ति गीतों की स्वर लहरियाँ बिखेरती हैं, तो लोग सम्मान में स्वत: अपनी जगह पर खड़े हो जाते हैं।
तीसरी घटना : दाऊद खाँ, जो एक सेवानिवृत्त शिक्षक हैं और छत्तीसगढ़ के धमतरी में रहते हैं। शिक्षकीय कार्य के अलावा उन्होंने पूरा जीवन गाँव-गाँव जाकर रामायण पाठ में अपना जीवन गुजार दिया। समाज के विरोध के बाद भी उन्होंने रामायण पाठ नहीं छोड़ा। काफी मुश्किलें झेलने के बाद भी वे अपने काम में डटे रहे। दाऊद खाँ विचारों से प्रगतिशील हैं। वे कहते हैं कि रामायण के लिए जमात से अलग होना मुझे मंजूर है। उनका मानना है कि अगर जमात निंदा नहीं करती तो मैं आज इस मुकाम तक नहीं पहुंच पाता। जब उनसे पूछा गया कि क्या आपके समाज ने रामायण पाठ के लिए आप पर पाबंदी नहीं लगाई? इस पर उन्होंने कहा कि समाज के लोगों ने तो बहुत विरोध किया, पर मैंने रामायण पाठ नहीं छोड़ा। साथ ही उन्होंने यहां तक कहा कि रामायण छोड़ो, नहीं तो जमात से बरतरब (बर्खास्त) कर दिए जाओगे, तो उन्होंने कहा कि मैं जमात में हूं कहाँ? जो मुझे बरतरब करोगे। फिर भी मैंने समाज वालों से कहा कि रामायण को हम छोडऩा तो चाहते हैं, मगर रामायण हमको नहीं छोड़ती। इस पर उन्होंने बच्चों की शादियों के लिए सामाजिक दिक्कतें आने की भी बात बताई, लेकिन मैं इन बातों से घबराया नहीं। मैं तो यह मानता हूं जो पैदा करता है, वह लड़के-लड़कियों का इंतजाम भी करता है और इसी बात को समाज को महसूस कराना चाहता था और मैंने अपनी दो बेटियों और एक बेटे की शादी करके दिखा दिया। हालांकि मेरे बच्चों की शादियों में समाज के 25 प्रतिशत लोग ही शामिल हुए थे। मैं इससे भी संतुष्ट था। मैंने अपने बच्चों की शादी के दौरान उनके ससुराल वालों से यह भी कह दिया था कि मैं खाना नहीं खिला सकता, भोजन कराऊँगा और मेरे बच्चों के ससुराल वालों ने इस बात को स्वीकार किया और बच्चों की शादी भी हो गई। मेरी दो बेटियां और एक बेटा है जिसमें से एक बेटी के. खान रायपुर में अपर कलेक्टर है, तो दूसरी बेटी बगरू निशा सागर में एसडीएम है। लड़का अयूब खां को इंसपेक्टर की नौकरी मिली थी और उसकी पदस्थापना भी धमतरी में ही हुई थी। लेकिन उसने यह नौकरी छोड़ दी, अब वह एक दुकान का संचालन कर रहा है। जब उनसे पूछा गया कि क्या आपकी पत्नी ने भी कभी इसका विरोध नहीं किया? इस पर उन्होंने कहा कि न तो मेरी पत्नी को कभी कोई आपत्ति थी और न ही शादी से पहले मेरे ससुर को। शादी के पूर्व मेरे ससुर को इन सब बातों की जानकारी थी। इसके बाद भी उन्होंने अपनी बेटी का हाथ मेरे हाथ में दिया।
जब उनसे पूछा गया कि आप नमाज अदा करते हैं या नहीं? इस पर उन्होंने कहा कि मौलाना साहब ने भी यही बात मुझसे कही थी कि कम से कम नमाज तो पढ़ लिया करो। तब मैंने उनसे कहा कि नमाज होती है, पढ़ी नहीं जाती। मैं तो साल में सिर्फ दो बार नमाज अदा करता हूँ, पहली ईद में और दूसरी बकरीद में। परिवार के बच्चों ने कभी आपके इस कार्य का विरोध नहीं किया? तब उन्होंने कहा कि जब मेरी पत्नी विरोध नहीं कर पाई तो मेरे बच्चे कैसे विरोध करते? मैं अपना धर्म निभाता हूं बच्चे अपना धर्म निभाते हैं। रामायण की जिज्ञासा आपमें कैसे जागी? इस पर 1983 में शिक्षकीय कार्य से सेवानिवृत्त हुए दाऊद खां ने कहा कि मेरे गुरु शालिग्राम द्विवेदी और पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी की प्रेरणा से मेरी जिज्ञासा रामायण में जागी। उन्होंने कहा कि जब मैं एम.ए हिंदी के प्रथम वर्ष में था, तब मेरे गुरु ने मुझे रामायण की एक गुटका दी और कहा कि इसे रात में पढऩा। अगर समझ में आए तो ठीक वरना वापस कर देना। मैंने पुस्तक का जैसे ही पृष्ठ खोला उसमें सबसे पहला शब्द शंभु, प्रसाद, सुमति, हीय, हुलसी इन पांचों शब्दों को पढ़ा। इन पाँचों शब्दों में शंभु का अर्थ शंकर, प्रसाद का अर्थ प्रसाद, सुमति का अर्थ अच्छी बुद्धि या सलाह ये तो समझ में आ गया लेकिन हीय और हुलसी ये शब्द का अर्थ समझ नहीं आया और मैंने पुस्तक बंद कर रख दी। लेकिन रात भर मुझे नींद नहीं आई। मैं अपनी कल्पना में खोया रहा और सोचता रहा कि मुझे शिक्षक बनना है और मैं दो शब्दों का अर्थ नहीं खोज पा रहा हूँ, तो फिर शिक्षक बनकर बच्चों को क्या पढ़ाऊँगा। यह सोचकर मैं रात भर जागता रहा और फिर जब मैंने पुस्तक वापस की तो मैंने अपने गुरुजी से कहा कि मुझे सब कुछ तो समझ में आ गया, लेकिन दो शब्दों का अर्थ नहीं समझ पाया। गुरुजी ने 'लेकिनÓ शब्द को पकड़ लिया और कहा जिसके मन में 'लेकिनÓ की जिज्ञासा हो, वह सब कुछ कर सकता है और वह जिज्ञासा तुममें नजर आ रही है। गुरुजी ने हीय और हुलसी की परिभाषा बताते हुए कहा हीय यानी हृदय और हुलसी का अर्थ आनंद से है। इसके बाद गुरुजी ने रामायण की तीन परीक्षाएं दिलवाई प्रथमा, मध्यमा और उत्तम। जिसमें मुझे इलाहाबाद से रामायण रत्न की डिग्री भी मिली।
उक्त घटनाएँ ये बताती हैं कि मजहब के नाम पर आतंकवाद फैलाने वाले दूसरे लोग हैं, जो भटके हुए हैं। यह समाज भी इन्हें हिकारत की नजरों से देखता है। कुछ मुट्ठीभर लोग ही ऐसे हैं, जिनकी बदौलत ये अपने काम को अंजाम दे रहे हैं। उच्च शिक्षा प्राप्त कर इस समाज के लोग आज देश में बड़े पदों पर विराजमान हैं। विचारों से ये हमसे भी कहीं अतिआधुनिक हैं। पर इसका कुछ बोलना ही हमारे लिए असह्य हो जाता है। अब उन मुस्लिम बहनों पर जब दारुउलम ने फतवा दे दिया। तब कई ऐसे मुस्लिम सामने आए, जिन्होंने इस फतवे का विरोध किया। मशहूर शायर मुनव्वर राना ने तो ऐसे फतवों की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए यहाँ तक कह दिया कि वन्देमातरम् गीत गाने से अगर इस्लाम खतरे में पड़ सकता है, तो इसका मतलब हुआ कि इस्लाम बहुत कमजोर मजहब है। प्रसिद्ध शायर अंसार कंबरी ने कहा कि मस्जिद में पुजारी हो और मंदिर में नमाजी हो। यह किस तरह फेरबदल है। ए.आर. रहमान तक ने वन्देमातरम् गीत गाकर देश की शान में इजाफा किया है। ऐसे में स्वयं मुस्लिम बुद्धिजीवी ही ऐसे फतवे की व्यावहारिकता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। वरिष्ठ अधिवक्ता ए.जेड. कलीम जायसी कहते हंै कि इस्लाम में सिर्फ अल्लाह की इबादत का हुक्म है, मगर यह भी कहा गया है कि माँ के पैरों के नीचे जन्नत होती है। चूंकि कुरान में मातृभूमि को माँ के तुल्य कहा गया है, इसलिए हम उसकी महानता को नकार नहीं सकते और न ही उसके प्रति मोहब्बत में कमी कर सकते हैं। भारत हमारा मादरेवतन है, इसलिए हर मुसलमान को इसका पूरा सम्मान करना चाहिए।
इस तरह के विचार ही यह बताते हैं कि जो मुस्लिम देश की बेहतरी के लिए सोच रहे हैं, वे देश के दुश्मन कदापि नहीं हैं। वे हमारे मित्र हैं। हमें उनसे ठीक वैसा ही व्यवहार करना है, जैसा पहले करते थे। वे हमसे अलग नहीं, बल्कि हमने ही उन्हें अलग कर दिया है। मनचले को घूँसा मारकर, मुस्लिम होकर भी रामायण पाठ कर और वंदे मातरम् गाकर ये मुस्लिम परिवार आखिर अपनी प्रगतिशीलता ही बता रहा है। हमें इनका सहयोग करना चाहिए, तभी हमें इनका सहयोग मिलेगा।
डॉ. महेश परिमल
Thursday, March 11, 2010
Saturday, March 7, 2009
Hand Block Printing of Balotra, Rajasthan
The traditional block-printing running in parallel lines technique of Ajrakh has attained a peak of excellence at Balotra. Although a desert climate but good water is one of the main reasons which imparts good colors which is so important for hand-block printing. The speciality of the block printing of Balotra is that it is done on both sides of the cloth. This is very diffult technique because there should not be any imbalance in the design-transfer from the block to the cloth. The reverse side hand block printing is done simultenously even when the other side of the design print is wet. The hand-block printed fabric from Balotra is therefore very exclusive and relatively expensive.
The traditional block-printing running in parallel lines technique of Ajrakh has attained a peak of excellence at Balotra. Although a desert climate but good water is one of the main reasons which imparts good colors which is so important for hand-block printing. The speciality of the block printing of Balotra is that it is done on both sides of the cloth. This is very diffult technique because there should not be any imbalance in the design-transfer from the block to the cloth. The reverse side hand block printing is done simultenously even when the other side of the design print is wet. The hand-block printed fabric from Balotra is therefore very exclusive and relatively expensive.
Dream’ project to feed slum residents bags coveted award
Mumbai: It all started with a dream that MBA student Ankit Jain had around a year ago in which he saw himself serving food to the poor at a slum near his college Narsee Monjee Institute of Management Studies (NMIMS) at Juhu.
He and three of his classmates then embarked on a mission to provide nutritious meals to slum-dwellers at Rs 5 in ready-to-eat packets. Last week, their project ‘Ahaar: Meal for Poor at Ten Cents’ won the coveted first prize at the Global Social Entrepreneurship Competition at the University of Washington’s Foster School of Business, defeating teams from universities across the world, including the Kellogs Business School, Johns Hopkins School of Public Health, Yale School of Medicine, University of Alberta, Singapore Management University, Brown University, Providence, Rhode Island, USA; University of Buckingham (UK); University of British Columbia; University of Washington, Seattle, USA, Indian School of Business, Hyderabad and others.
Jain and his classmates Sidharth Bedi, Sreejith NG and Rahul Agarwal, who won $10,000 now want the project to be implemented in other parts of India. They are already in talks with a Mumbai-based NGO, Garbage Concern, for a pilot project in Juhu slums.
“The preparations began a year ago after I had the dream. After discussing it with my classmates, I realised we could use our management expertise to solve malnourishment problem in slum areas,” said Jain.
The students visited slums in Juhu and Dharavi and interacted with residents to find their nutritional needs. They observed that they were mostly daily wage earners unable to meet the daily requirement of 700 calories because they could not afford to buy nutritious food.
With the help of their college nutritionist, they were able to chart out a daily menu consisting of rice, lentils, vegetable, vegetable peels and jaggery and also worked on subsiding costs and maintaining quality.
“As part of our project, we also aim to empower women in slum areas by hiring them to make the food packets in lieu of wages and free food packets for their families. Depending on feasibility of the pilot project, we plan to approach venture capitalists to implement the scheme on a bigger scale,” said Bedi.
The GSEC invites students from around the world and across fields of study ‘to find creative, unorthodox solutions to problems of poverty in the developing world.’
At the competition, the students had to create an innovative product, and develop a new business model to market it and get it validated from management experts.
“The projects of other teams were very good. What surprised us was that along with teams from developing countries, those from countries like the US and UK too, were eager to lend a helping hand to the marginalised people in the developing counties through their ideas,” said Jain.
Mumbai: It all started with a dream that MBA student Ankit Jain had around a year ago in which he saw himself serving food to the poor at a slum near his college Narsee Monjee Institute of Management Studies (NMIMS) at Juhu.
He and three of his classmates then embarked on a mission to provide nutritious meals to slum-dwellers at Rs 5 in ready-to-eat packets. Last week, their project ‘Ahaar: Meal for Poor at Ten Cents’ won the coveted first prize at the Global Social Entrepreneurship Competition at the University of Washington’s Foster School of Business, defeating teams from universities across the world, including the Kellogs Business School, Johns Hopkins School of Public Health, Yale School of Medicine, University of Alberta, Singapore Management University, Brown University, Providence, Rhode Island, USA; University of Buckingham (UK); University of British Columbia; University of Washington, Seattle, USA, Indian School of Business, Hyderabad and others.
Jain and his classmates Sidharth Bedi, Sreejith NG and Rahul Agarwal, who won $10,000 now want the project to be implemented in other parts of India. They are already in talks with a Mumbai-based NGO, Garbage Concern, for a pilot project in Juhu slums.
“The preparations began a year ago after I had the dream. After discussing it with my classmates, I realised we could use our management expertise to solve malnourishment problem in slum areas,” said Jain.
The students visited slums in Juhu and Dharavi and interacted with residents to find their nutritional needs. They observed that they were mostly daily wage earners unable to meet the daily requirement of 700 calories because they could not afford to buy nutritious food.
With the help of their college nutritionist, they were able to chart out a daily menu consisting of rice, lentils, vegetable, vegetable peels and jaggery and also worked on subsiding costs and maintaining quality.
“As part of our project, we also aim to empower women in slum areas by hiring them to make the food packets in lieu of wages and free food packets for their families. Depending on feasibility of the pilot project, we plan to approach venture capitalists to implement the scheme on a bigger scale,” said Bedi.
The GSEC invites students from around the world and across fields of study ‘to find creative, unorthodox solutions to problems of poverty in the developing world.’
At the competition, the students had to create an innovative product, and develop a new business model to market it and get it validated from management experts.
“The projects of other teams were very good. What surprised us was that along with teams from developing countries, those from countries like the US and UK too, were eager to lend a helping hand to the marginalised people in the developing counties through their ideas,” said Jain.
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